गोधूलि बेला थी, लेकिन मंडी हाउस के पॉश इलाके में पसरी चौड़ी सड़कों पर कहां गऊएं और कहां धूल?… वहां था तो सिर्फ उन लोगों का आता-जाता रेला जो दफ्तर से निकले थे और अब जल्द से जल्द घर पहुंचना चाहते थे, लेकिन कमानी ऑडिटोरियम के बाहर उमड़ा हुजूम उनकी रफ्तार में ब्रेक लगा रहा था.
ये हुजूम उन लोगों का था, जो अगले कुछ पलों में एक ऐसे अनुभव के साक्षी बनने वाले थे, जिसे शब्दों में बखान करना मुश्किल होने वाला था, जिसकी प्रशंसा में पिरोये जाने वाले मोती चमक में फीके लग सकते थे, क्योंकि आंखें तो सिर्फ देखना जानती हैं, बोल नहीं सकतीं और बोल सकने वाले मुख के पास आंखें नहीं हैं.
उसे समझने के लिए सिर्फ दो अक्षर ही काफी हैं. वे दो अक्षर, जिसे युगों और शताब्दियों से ऋषियों-मुनियों की परंपरा ने ‘राम-राम’ कहकर पुकारा है. ये हुजूम नारायण के सातवें अवतार, रावण के तारणहार, सीता के कंठहार और जन-जन के राम… ‘हमारे राम’ को देखने उमड़ा था.
कविताओं की गति में छंद बद्ध तरीके से रचा गया और मंच पर सुंदर स्वरों के साथ लयबद्ध तरीके से प्रस्तुत नाटक ‘हमारे राम’ दर्शकों के सामने चिर-परिचित रामकथा लेकर उतरता है, लेकिन अलग कलेवर के साथ. नाटक का निर्देशक यह जानता है कि दर्शक जानते हैं कि राम विष्णु अवतारी हैं, इसलिए वह इस पौराणिक अवतारवाद के चक्कर में नहीं पड़ा, वह सीधे उन प्रश्नों पर आता है, जो मानवता के लिए प्रश्नचिह्न हैं. वह श्रीराम कथा के ही जरिए उन मर्यादाओं और उन रीतियों-नीतियों के प्रश्न करता है जिन्हें खुद त्रेतायुग में श्रीराम ने ही स्थापित किया था, और मंचन के बीच-बीच में प्रसंग वश वह ‘हमारे राम’ नाटक के किरदारों के जरिए हमसे प्रश्न करता है कि हम श्रीराम को तो मानते हैं, पर क्या हम श्रीराम की मानते हैं?
तमाम सवालों के बीच भी निर्देशक ने भक्ति का रंग नाटक में ऐसा घोला है कि कमानी ऑडिटोरियम ही अपने आप में अयोध्या बन गया और हर दर्शक अयोध्यावासी. इसकी बानगी पहले ही सीन से देखने को मिलती है. पर्दा गिरा हुआ है, घुप्प अंधेरा है, धीरे-धीरे कीर्तन की तरह श्रीराम स्तुति की आवाज सुनाई देती है और इसमें दर्शकों की आवाज घुलती चली जाती है. जब स्तुति के साथ जनभावना अपने सबसे उच्च स्तर पर पहुंचती है तो श्रीराम की जयकार के साथ नाटक का थीम सॉन्ग ‘हमारे राम’ बज उठता है. शंख की ध्वनि आती है और इसी बढ़ती जाती ध्वनि के साथ पर्दा उठता है.
पर्दा उठते ही तेज पीले प्रकाश ने आंखों पर ऐसा असर डाला कि, जैसे लगा कि सच ही किसी दिव्य आत्मा की दर्शन हो रहे हैं, कुछ सेकेंड स्थिति ऐसी ही रही और फिर जब आंखें दृश्य देखने लायक हो सकीं तो सामने था श्रीराम का भव्य दरबार… इसी के साथ बैकग्राउंड स्कोर इसे और दिव्य बना रहा है.
तुम हो नभ में, तुम हो थल में
वायु अग्नि जल में
तुम ही तो थे
तुम ही तो हो
आते-जाते पल में
पुरुषोत्तम हो सर्वोत्तम हो, तुम हो हमारी शान
हो रोम-रोम में बसने वाले, हे जीवों के प्राण
हमारे राम…. हमारे राम… हमारे राम… हमारे राम
जब इस भव्य दरबार में दरबारी ने प्रभु श्रीराम चंद्र की… कहा तो दर्शकों ने खुद ही जय… जय… जय का उद्घोष किया. यही तो निर्देशक चाहता था. यही तो नाटक के पहले सीन का लक्ष्य था. दर्शक खुद को कलयुग के 2024 में बैठा हुआ न माने. वह देश-काल, कैलेंडर को भूल जाए और किरदारों के साथ त्रेतायुग के उसी काल में चले जहां रामकथा सजीव हो रही है, आकार ले रही है, जहां श्रीराम कभी वन में हैं, कभी सीता माता के मन में हैं, कभी भालू-बंदर की टोली में हैं, कभी ऋषि-मुनियों की बोली में हैं. कभी धनुष संभाले हैं रण में तो कहीं हैं गिलहरी के कण में… दर्शक श्रीराम के जयघोष के साथ अयोध्या के उस दरबार में पहुंच गए.
लेकिन, यहां उनका सामना बहुत बड़े प्रश्न से होने वाला था. प्रश्न ऐसा कि जिसकी चपेट में खुद श्रीराम आ गए और प्रश्न उठाया उन्हीं के दोनों पुत्रों लव-कुश ने जो थोड़ी ही देर पहले इसी दरबार में रामकथा सुनाते हुए लोगों के बीच से ही उठकर झूमते-गुनगुनाते पहुंचे थे.
एक बानगी देखिए…
राम-राम सिया राम राम
राम राम सिया राम राम
जो विधाता स्वयं रच गए लोक
घोर तम में भी है जो है आलोक में
जो समय से परे है, परे काल से
जो जुड़ी है धरा नभ से पाताल से
जो कथानक नहीं है परम सत्य है
हम उसी सत्य को अब सुनाने चले
रामलीला को हम गुनगुनाने चले.
मशहूर सिंगर सोनू निगम की आवाज में लव-कुश ने इस भजन के जरिए रामकथा का वो समां बांधा कि लोग अब पूरी तरह से मंत्रमुग्ध हो चुके थे. ‘जादूगर’ ने लोगों की नजरें बांध दी थीं, हिप्नोटिज्म हो चुका था, अब लोगों को मंच से वह सबकुछ आसानी से दिखाया-समझाया जा सकता था जो इस नाटक का असली उद्देश्य था और महर्ष वाल्मीकि बने किरदार ने इसकी शुरुआत का बीड़ा उठाया.
वह सभा के बीच पहुंचते हैं और श्रीराम को संबोधित करते हुए कहते हैं, रामकथा सुना रहे ये दोनों बालक तुम्हारे ही पुत्र लव-कुश हैं, तुम्हारी भार्या सीता इनकी मां है. मेरे ही वन-आंगन में ये जन्में और पले-बढ़े हैं. अब तुम सीता को वो स्थान दो, जो उसके लिए सबसे उचित है. इसीके साथ तापसी वेश में सीता मंच पर आती हैं. सीता की भूमिका में हरलीन रेखी थीं, जिन्होंने टीवी सीरियल श्रीमद रामायण में मंदोदरी की भूमिका निभाई थी.
देवी सीता के आते ही दरबार में कानाफूसी होने लगती है… क्या सीता की फिर से परीक्षा होनी चाहिए. दूसरा कहता है, शायद हो… तीसरा कहता है, क्या राम बिना परीक्षा लिए मानेंगे ?… चौथा कहता है, अगर देवी सीता सौगंध उठा लें कि वह पवित्र हैं तो श्रीराम उन्हें स्थान देंगे? राम के कानों में ये स्वर पड़ते हैं, और वह उठना चाहकर भी सिंहासन से नहीं उठ पाते हैं. ये सब देखकर सीता सभा में चारों ओर देखती हैं. वह माताओं, गुरुजनों, अपनी बहनों को निहारती हैं और फिर मंच पर आगे आकर धरती मां को पुकारती हैं,
‘हे धरती मां, अगर मन से पवित्र हूं मैं तो अपनी गोद में स्थान दे मुझे’ इसीके साथ धरती फट जाती है और देवी सीता उसमें समा जाती हैं.
लव-कुश के सवाल और सनातन की खूबसूरती
महर्षि वाल्मीकि लव-कुश को श्रीराम को सौंपते हैं और उन्हें गले लगाने को कहते हैं, राम आगे बढ़ते हैं, लेकिन मां के जाने से दुखी लव-कुश उन्हें आगे बढ़ने से रोक देते हैं. राम असहाय ठिठक कर खड़े रह जाते हैं. लव-कुश सीधे श्रीराम से कहते हैं कि हमारे प्रश्नों के उत्तर दें और वह उन्हें व्यंग्यात्मक तौर पर सम्राट कहते हैं और हर एक प्रश्न के साथ कठघरे खड़ा करते जाते हैं.
ये सीन नाटक की सबसे बड़ी खूबसूरती है, बल्कि ये पूरा सिनेरियो सनातन की खूबसूरती है, ये भारतीय राजनीति की परिपक्वता का आयाम है, जहां राजा सर्वेसर्वा तो है, लेकिन व्यवस्था से बड़ा नहीं है. वह सवालों से परे नहीं है, राजा और सम्राट किसी भी प्रश्नवाचक परिस्थिति से भाग नहीं सकते और जिस समय राजा इस विधान से खुद को अलग कर लेता है, वह राजा नहीं रह जाता है.
वाल्मीकि रामायण में भी राजा और राजव्यवस्था को लेकर दर्ज है
कच्चिन् न लुब्धाः सचिवाः कच्चिन् न ग्राहितास्त्वया,
कच्चिदर्थेन वा धर्मं, धर्मं वा पश्यसि त्वया.
रामायण युग के हजारों सालों बाद जब चाणक्य ने अर्थशास्त्र लिखी तब वह भी लिखते हैं कि…
“प्रजासुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम्।
नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु प्रियं हितम्॥”
(राजा की खुशी प्रजा की खुशी में है, और प्रजा का हित ही राजा का हित होना चाहिए। राजा का हित वही है जो प्रजा को प्रिय और कल्याणकारी हो.)
नाटक के किरदार के तौर पर लव-कुश सिर्फ श्रीराम से सवाल नहीं कर रहे हैं, वह आधुनिक काल की राजनीति को आईना दिखा रहे हैं और पूछ रहे हैं कि क्या तुम्हारी राजनीति इतनी ही पारदर्शी है? सभा में जौ मौन छाया था, जो शीश झुके थे और जो सन्नाटा पसरा था, वह यह जताने के लिए काफी था, कि नहीं, हमारी राजनीति ऐसी पवित्र और पुनीत नहीं रह गई है.
रावण का आगमन और उसकी महादेव भक्ति ने किया मंत्रमुग्ध
खैर, सवालों की इस बहती गंगा के साथ नाटक आगे बढ़ता है. लव-कुश के प्रश्न सुनकर लक्ष्मण क्रोधित हो उठते हैं और वह सूर्य देव को बुला लेते हैं, क्योंकि एक वही हैं, जिन्होंने श्रीराम के पूरे जीवन चरित्र को अपनी आंखों से देखा है. भगवान भुवन भास्कर सभा के बीच आते हैं और फिर रामकथा सुनाना शुरू करते हैं, लेकिन सबसे पहले वह इस महान कथा के खलनायक का परिचय देते हैं और इसी के साथ दृश्य बदलता है. मंच पर रावण बने आशुतोष राणा की एंट्री होती है. मशहूर सिंगर कैलाश खेर की आवाज में बैकग्राउंड स्कोर रावण का परिचय देने के लिए काफी है.
महादेव साधक, दशानन- दशानन
पराक्रम का मानक दशानन-दशानन
धरा से गगन तक दशानन दशानन
दिशाओं की धक-धक
दशानन- दशानन
रावण की एंट्री ने दर्शकों के रोंगटे खड़े कर दिए और लोगों के लिए सबसे रोमांचक समय तो वो रहा जब दशानन के किरदार में आशुतोष राणा ने लोगों के बीच से उन्हें डराती हुई सी छवि के साथ मंच पर एंट्री ली. मंच पर सोने की लंका में शिवाला बना हुआ दिखता है और रावण यहां पूजन कर महादेव को शीष अर्पित करता है. महादेव प्रसन्न होते हैं और प्रकट होकर रावण को दसशीश का वरदान देते हैं. यहां ये बता देना जरूरी है कि नाटक में महादेव की भूमिका तरुण खन्ना ने निभाई है. वह चंद्रगुप्त सीरियल में चाणक्य की भूमिका और राधा-कृष्ण धारावाहिक में भी महादेव के किरदार में दिख चुके हैं.
रावण को वरदान देकर महादेव जाने ही वाले होते हैं तो रावण उन्हें रोक लेता है और फिर कहता है कि प्रभो! आपकी प्रशंसा में मैंने कुछ छंद रचा है, उसे भी सुनते जाइए. इसके बाद रावण बने आशुतोष राणा महादेव को कवि आलोक श्रीवास्तव द्वारा रचित शिव तांडव स्त्रोत का हिंदी भावानुवाद सुनाते हैं. शिव इस पर नृत्य करते हैं और दर्शक हाथ जोड़े मंत्र मुग्ध से बस देखते ही जाते हैं.
जटाओं से है जिनके जलप्रवाह माते गंग का।
गले में जिनके सज रहा है हार विष भुजंग का।
डमड्ड डमड्ड डमड्ड डमरु कह रहा शिवः शिवम्।
तरल-अनल-गगन-पवन धरा-धरा शिव: शिवम् ॥
जो नंन्दनी के वंदनीय, नंन्दनी स्वरूप है।
वे तीन लोक के पिता, स्वरूप एक रूप है।
कृपालु ऐसे है के चित्त जप रहा शिवः शिवम्।
तरल-अनल-गगन-पवन धरा-धरा शिव: शिवम् ॥
नाटक में सम-सामयिक विषयों पर चुटीले व्यंग्य-तंज और सवाल
अपनी ही गति के साथ बढ़ रहा नाटक, कई सम-सामयिक विषयों को साथ लेकर चलता है और हर विषय के अंत में वह आधुनिक युग पर चोट करता है. चोट इसलिए, क्योंकि ये युग जो सनातन को भूल चुका है, जो नीति, रीति और मर्यादा को नहीं जानता है. जो श्रीराम को सिर्फ मंदिरों में बैठा देव मान चुका है, उनकी सिर्फ पूजा करने लगा है, लेकिन गुणों से दूरी बनाने लगा है, नाटक अपने चुटीले संवादों में ऐसी हर व्यवस्था पर व्यंग्य और तंज कसता है. इसके दायरे में मैरिटल रेप, पत्नी को अधिकार, स्त्री स्वतंत्रता, नारी सम्मान, न्याय व्यवस्था और धर्म की वास्तविक पहचान जैसे विषय आते हैं.
रंभा अप्सरा से दुष्कर्म और मैरिटल रेप की बात
एक दृश्य सामने आता है, जिसमें रावण अप्सरा रंभा के साथ दुष्कर्म करता है. तब रंभा उसे दुत्कारती है और संबंधों की दुहाई देती है. असल में रंभा नलकुबेर की ब्याहता थी. नलकुबेर, रावण के सौतेले भाई कुबेर का बेटा था. रंभा कहती है कि इस लिहाज से तो आप मेरे श्वसुर होते हैं. रावण वासना में इतना डूबा था कि वह कहता है कि, चल हट… तू सिर्फ अप्सरा है, ऐसे संबंधों का बात न कर.
रंभा फिर उस पर चोट करती हैं और कहती है कि, अप्सरा हूं तो क्या, मेरा अपना भी हृदय है, मान है, वरण की इच्छा है. बिना इच्छा के तो पत्नी से भी संबंध बनाना पाप है, फिर मैं तो पर नारी हूं. सभागर में रंभा के सुरों में गूंजी ये आवाज हमारे समाज की आवाज है, जिसमें आज भी, अभी भी, ये सवाल बाकी है कि ‘मैरिटल रेप’ जैसा कोई टर्म माना जाए या नहीं. इस मामले पर सरकार की अलग दलीलें रही हैं, कोर्ट किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सका है और आज से युगों पहले एक पीड़िता ने बता दिया था कि विवाह में भी अगर इच्छा के विरुद्ध संबंध है तो वह पाप है, दुष्कर्म है.
सीता स्वयंवर और पत्नी के अधिकार की बात
ठीक इसी तरह एक दृश्य राम-सीता के स्वयंवर का है. जहां सीता, श्रीराम का वरण करती हैं और राम उन्हें एक पत्नीव्रत का वचन देते हैं. इस मौके पर श्रीराम कहते हैं कि मैं एक देखता आ रहा हूं कि राजा कई रानियों से विवाह करते हैं. कई पत्नियों का उन्होंने चलन बना लिया है, लेकिन आज इस परम पावन मौके पर मैं सीते, तुम्हें वचन देता हूं कि राम के जीवन में एक पत्नी है और एक ही पत्नी रहेगी. ये मानवता के लिए भी मिसाल है कि अगर उसे पतिव्रता पत्नी की कामना है तो पहले खुद पत्नीव्रती पति बनना होगा. यह एक पत्नी के लिए सच्चा सम्मान होगा, जिसकी वह अधिकारी है.
जटायु का अंतिम संस्कार
सीताहरण के दृष्य के बाद श्रीराम मानवता का सबसे बड़ा परिचय तब देते हैं, जब वह गिद्धराज जटायु का दाह संस्कार अपने पूज्य पिता दशरथ के समान ही करते हैं और उन्हें पिता तुल्य कहकर पुकारते हैं. असल में इससे पहले जटायु और रावण के बीच भीषण युद्ध हुआ था. रावण देवी सीता का हरण कर पुष्पक विमान से ले जा रहा था, तब जटायु रावण का रास्ता रोकते हुए ललकारता है. इस काव्यमय युद्ध की बानगी देखिए…
जटायु-
तू एक चोर है नारी का
जो सिर्फ कपट में रहता है
खुद को कहता है महावीर
त्रिलोक विजेता कहता है… हटट
तब रावण कहता है-
मेरे विवेक और बल को तू
पक्षी समझ न पाएगा
अंत समय वर्यर्छ कर अपना
नाहक ही प्राण गंवाएगा
मेरे पथ से हट जा तुरंत
जा सड़े मांस का भोजन कर
मैं इद्ध गिद्ध को क्या मारूं
जाकर किसी गुफा में मर
अन्यथा काटकर पक्ष तेरे
तुझको निष्पक्ष बनाऊंगा
तेरे साहस को मिट्टी में अभी मिलाऊंगा.
भक्त शंकर का तू
तू महाअधर्मी अभिशापी
तेरा तो वार गया खाली
अब मेरा वार झेल पापी…
कथा के अनुसार ही जटायु की हार होती है और रावण लंका की ओर बढ़ जाता है. इधर, श्रीराम-लक्ष्मण सीता को खोजते हुए जब इस पथ पर पहुंचते हैं तो जटायु के मृत शरीर का अंतिम संस्कार करते हैं. यहां कथा सुना रहे सूर्यदेव और लव-कुश एक बार फिर मंच पर नजर आते हैं, तब सूर्यदेव लव-कुश को समझाते हैं कि तुम्हारे पिता ने आज मानवता का सबसे उच्चतम चरित्र सामने रखा. उनके लिए हर प्राणी एक समान है, फिर चाहे वह नगर में रहने वाले कोई धनिक हो, या जंगल में रहने वाला आदिवासी. जीवन से लेकर मृत्यु तक राज्य का हर उचित व्यवस्था का अधिकारी हर एक प्राणी है. यह मानवता की कसौटी है और राजनीति का कल्याणकारी दृष्टिकोण भी. लव-कुश को अब तक अपने कुछ प्रश्नों के उत्तर मिल चुके थे, वह अपने पिता की इस भावना को प्रणाम करते हैं. आगे के उत्तर देने के लिए सूर्यदेव कथा को आगे बढ़ा ले जाते हैं.
जब श्रीराम ने रावण को बनाया अपनी शिवपूजा के लिए आचार्य
नाटक का सबसे उन्नत और सबसे प्रभावशाली पक्ष के इसके अंतिम समय में आता है. वह भी दो बार. एक मौका है, जब श्रीराम, सागरतट पर शिवपूजन की योजना बनाते हैं तो सवाल उठता है कि आचार्य कौन होगा? जांबवंत इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि इतनी दूर सुदूर दक्षिण में महादेव का परम भक्त तो सिर्फ रावण ही है. जन्म से ब्राह्मण है, कर्म से भी पांडित्य का ज्ञान उसके पास है ही, वही आचार्य बनने के योग्य है. हालांकि उसकी संस्कृति रक्ष (राक्षसों की) है.
श्रीराम कोई जवाब देते इससे पहले ही लक्ष्मण क्रोधित हो उठते हैं, और इस प्रस्ताव को सिरे खारिज कर देते हैं. तब श्रीराम जो कहते हैं, उसे सारे संसार को सुनना चाहिए. वह कहते हैं कि रावण शत्रु तब होगा, जब हम उससे युद्ध भूमि में मिलेंगे. अभी तो युद्ध शुरू नहीं हुआ और फिर यह शांति का एक मार्ग भी तो है कि उसे एक बार उसकी प्रकृति याद दिलाई जाए. राम यह भी कहते हैं कि शत्रु में अगर कोई उत्तम गुण है तो बिना ईर्ष्या के उसे सम्मान दिया जाना चाहिए.
श्रीराम के समझाने पर लक्ष्मण मान जाते हैं और फिर जांबवंत जी ही रावण को आचार्य पद के लिए मनाने और आमंत्रित करने जाते हैं. अब यहां जहां एक ओर रावण की भक्ति का चरम है तो दूसरी ओर जांबवंत जी के बुद्धि चातुर्य की भी सीमा नहीं है. इसकी बानगी देखिए.
रावण-
हे पूज्य पितामह के भ्राता
आनंदित मेरा तनमन है
लंका में आप पधारे हैं
सादर स्वागत अभिनंदन है.
जांबवंत का जवाब
कल्याणमस्तु लंकापति स्वागत का धन्यवाद
किंतु में दूतरूप में आया हूं
प्रभु श्रीराम का हे वत्स
सादर आमंत्रण लाया हूं
रावण का प्रश्न
आमंत्रण, मेरे शत्रु का आमंत्रण?
जांबवंत का जवाब
ये न्योता है, आचार्य हेतु
पूजन शिव पूर्णकाम का है
ये न्योता नहीं शत्रु का है
न्योता यजमान राम का है
बन गया है सेतु सागर पर
अब शिवलिंग का होगा स्थापन
बस पूजा के आचार्य हेतु
सर्वथा उचित हो तुम रावण
बन जाओ पुरोहित तुम रावण
राघव के नम्र निवेदन पर
तुम सा विद्वान और पंडित
शिवभक्त और न कोई दसकंधर
ये काव्यत्मक संवाद कुछ लंबा चलता है, हालांकि शिवपूजा को मना न कर पाने के चलते रावण एक नई चाल चलता है ताकि जाना न पड़े. इसलिए वह कहता है कि बिना पत्नी के शिवपूजा संपन्न नहीं हो सकती है. राम के पास अभी तो पत्नी नहीं है. मैं ऐसी अधूरी पूजा का आचार्य नहीं बनूंगा.
तब देखिए किस चतुराई से जांबवंत रावण को आचार्य बनने के लिए मना लेते हैं.
रावण कहता है..
ये पावन यज्ञ महेश्वर का मानस की विमल तपस्या है
इस पूजन में रीछराज पहले ही एक समस्या है
एकाकी राघव की पूजा निष्फल और अधूरी है
शिवलिंग की प्राण प्रतिष्ठा में, पत्नी का साथ जरूरी है.
शास्त्रों में नियम सुनिश्चित हैं, इसको कैसे झुठलाएंगे
सीता के बिना राम कैसे ये अनुष्ठान कर पाएंगे.
इसलिए, राम से कह देना मैं शास्त्र विरुद्ध न जाऊंगा
शिव के ऐसे पूजन का मैं आचार्य नहीं बन पाऊंगा.
जांबवंत का जवाब-
शास्त्रों के ज्ञाता दसकंधर, शिवभक्त परमविज्ञानी हो
फिर क्यों ऐसे प्रश्व उठाते हो, जैसे कोई अज्ञानी हो
पंडित कोई आचार्य हेतु जब भी हामी भर लेता है
जो भी अभाव हो पूजा में वो स्वंय पूर्ण कर देता है
जांबवंत जी की इस चतुराई का रावण भी कायल हो जाता है और वह फिर वचन देता है कि सीता को लेकर जरूर सागर पर पूजा स्थल पर पहुंचेगा. ये प्रसंग जहां राम के भीतर शत्रु की योग्यता पहचानने का गुण दिखाता है तो वहीं दूसरी ओर रावण की भी अच्छाई को उकेरता है कि निगेटिव शेड कैरेक्टर होने के बावजूद वह अपनी भक्ति पर अडिग है.
लक्ष्मण को रावण ने दिया अंतिम ज्ञान
नाटक के अंत में दूसरा मौका युद्ध के बाद आता है, जब रावण युद्ध हार चुका है और मुक्ति के अंतिम क्षणों में है, तब श्रीराम लक्ष्मण से कहते हैं कि, हे वत्स! रावण का अब अवसान होने ही वाला है, लेकिन इसके साथ ही पांडित्य, राजनीति, ज्ञान, नीति का एक सूर्य भी अस्त हो जाएगा. इसलिए तुम जाओ और अंतिम समय में ये ज्ञान रावण से प्राप्त करो. लक्ष्मण राम से मना करते हैं, लेकिन बहुत समझाने पर बेहद गुस्से में रावण के पास जाते हैं और सिरहाने खड़े होकर रावण-रावण पुकारने लगते हैं.
रावण ने कोई जवाब नहीं दिया. गुस्से में लक्ष्मण श्रीराम के पास वापस आ जाते हैं. तब राम उन्हें समझाकर दोबारा भेजते हैं और इस पर शीष झुकाकर पैरों के पास झुककर प्रार्थना करते हुए ज्ञान मांगने के लिए कहते हैं. लक्ष्मण भैया की आज्ञा मानकर जब ऐसा करते हैं तब रावण उन्हें बेहद सरल लगने वाले लेकिन गूढ़ रहस्यों को उनके सामने खोलता है. ये रहस्य मानव जीवन की थाती हैं, हमारी संस्कृति का आधार है और संसार में मानवता जो अभी भी थोड़ी बहुत स्थिति में सांस ले रही है, ये रहस्य उसी मानवता की आत्मा है. रावण, लक्ष्मण से कहता है कि जीवन में अगर किसी को लक्ष्मण जैसा भाई चाहिए, तो उसे खुद राम जैसा बनना चाहिए. सीता सी पत्नी चाहिए तो उसे पहले राम बनना चाहिए. राम का पथ जीवन का पथ है. रावण कहता है, क्या तुम जानते हो लक्ष्मण, राम ने तुम्हें मेरे पास ज्ञान लेने क्यों भेजा? क्योंकि मनुष्य को अंतिम क्षणों में अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करना चाहिए. मेरी असल प्रकृति तो पांडित्य की, तपस्वी की और साधक की ही है, लेकिन मेरी संस्कृति राक्षसी थी. श्रीराम मेरा ध्यान संस्कृति से हटाकर प्रकृति में लगाना चाहते थे और उन्होंने तुम्हें निमित्त बनाया.
जीवन का सत्य है रामकथा
लक्ष्मण को उपदेश देकर रावण मुक्त हो जाता है. दृष्य फिर से अयोध्या में लौटता है जहां लव-कुश अपने पिता के आगे हाथ जोड़े खड़े हैं. सूर्य देव से उन्हें मर्यादा से जुड़े सभी उत्तर मिल चुके हैं. सूर्य देव कहते हैं कि यह राम का युग है तो श्रीराम पर सवाल उठे आगे घोर कलयुग आएगा तब तो शायद श्रीराम के अस्तित्व पर ही सवाल बन जाए, लेकिन श्रीराम की बनाई संस्कृति, व्यवस्था युगों-युगों तक मानवता की प्रेरणा रहेगी और लोगों को जीवन के सत्य से परिचित कराएगी.’ सूर्यदेव के इस उद्घोष के बाद लव-कुश श्रीराम के गले लगते हैं. फिर राम उन्हें अपना राज्य सौंपकर सरयू मां की गोद में समाधि के लिए चले जाते हैं. पर्दा गिरता है और एक बार फिर सभागार सियावर राम चंद्र की जय से गूंज उठता है.
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